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और सबकी निगाहें उस तरफ ऐसी उठीं हैं जैसे स्टेडियम में सचिन तेंदुलकर अपने क्रिकेट कॅरियर का आखिरी बॉल खेल रहे हों. एक कुश्ती ही तो है. इतना हौवा बनाने की क्या जरूरत थी भला. पर बात ये भी है क्रिकेट के मैच में हार-जीत में पटाखों की होली भले जले लेकिन भाई कुश्ती तो पर्सनल ‘प्राण-प्रतिष्ठा’ बन जाती है. क्रिकेट मैच हार जाओ..क्या फर्क पड़ता है…बॉलर बल्लेबाजों पर ठीकरा फोडेंगे, बल्लेबाज फील्डर पर और आखिर में फील्डर कप्तान को लपेटे में लेगा. बस बन गई बात. मैसेज तो चला गया लोगों को कि हार किसी एक की नहीं थी तो इनकी प्राण-प्रतिष्ठा पर भी नहीं पड़ती. लेकिन यह कुश्ती एकदम उलट. इज्जत का फालूदा बना देती है (अगर हारा कोई..), लेकिन लोगों को वही करना होता है. उन्हें तो इज्जत का फालूदा बनाने में ही मजा आता है. तो दंगल लगते ही सबकी निगाहें बिल्ली की तरह चमक उठीं..देखें किसका फालूदा बनता है.
इस दंगल के लिए अखाड़ा बहुत पहले से तैयार हो रहा था. दांव भी बहुत पहले से लग रहे थे. कभी इसका पलड़ा भारी, तो कभी उसका पलड़ा भारी. सब बराबर ही नजर आ रहे थे. लेकिन आखिरी दांव तो आखिरी दांव ही होता है. आखिरी दांव में जो चित्त…तो बस..दांव भी गया, प्रतिष्ठा के साथ प्राण गंवाने की भी नौबत आ जाती है. वही..वही आखिरी दांव तो है कि लोग सचिन को भव्य स्टेडियम में देखने से ज्यादा कौतूहल से इस दंगल पर नजर गड़ाए बैठे हैं.
कुछ यूं समझिए कि जब सब्जी पकती है तो पकाने से मतलब सिर्फ पकाने वालों को होती है लेकिन खाने वालों को तो उससे उसका स्वाद चखने की जल्दी होती है कि देखें पकाने वाला कितना उस्ताद है. उसपर भी जब रेसिपी नई हो और मसाले नए-नए पड़े हों तब तो डिश का स्वाद चखने के लिए लोग और उतावले होते हैं. देखें नए मसाला किसी काम का भी था या यूं ही हेंकड़ी है इसकी!
आप भी कहेंगे कि आज इस गली में क्या ऊट-पटांग बातें चल रही हैं. कुश्ती, स्टेडियम, सचिन, क्रिकेट मैच …और तो और सब्जी और मसालों की बात!… भला यह क्या बात हुई… बात दंगल से शुरू हुई और जाने कहां से सब्जियां पकने लगीं. आप भी एक पल को संदेह में होंगे कि सटायर गली में ही आए हैं या गलती से होटल ओबेरॉय की गली में चले गए. नहीं नहीं, आप बिल्कुल सही गली में आए हैं. सटायर गली में ही हैं आप और हम दंगल की बात ही कर रहे हैं. हम तो बस दंगल की प्रकृति समझा रहे थे.
दरअसल दंगल कोई बड़ी बात नहीं. होते ही तहते हैं लेकिन यह दंगल थोड़ा अलग है. ढिल्ली का चुनावी दंगल है यह. इसमें पुराने धुरंधर को चुनौती देने एक नया सूरमा आया है. अब कहने को तो वह खुद को सूरमा ही बता रहा. दांव भी अच्छे खेले हैं लेकिन दंगल के पुराने धुरंधरों को वह चित्त कर पाता है या नहीं यह देखना अभी बाकी है. अगर चित्त किया धुरंतर तो वह तभी कहलाएगा वरना ‘आप ही अपनी बड़ाई करने वालों की दुनिया में क्या कमी है जनाब’… फिर? फिर क्या? कुछ नहीं.. आप ही बड़बोला कहलाएंगे और धुरंतर का तमगा फिर से वही पुराने खिलाड़ी ले जाएंगे. तो आखिरी दंगल का आखिरी दांव लग चुका है…निगाहें बेसब्री से इंतजार में हैं..देखते हैं यह दांव किसके खाते जाता है.
Delhi Election 2013
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