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अब तक बस सुनते आए थे कि एक बेईमान दोस्त से ईमानदार दुश्मन ज्यादा बेहतर होता है. लेकिन लालकृष्ण आडवाणी और नरेंद्र मोदी के मसले ने इस कथन को सार्थक कर दिखाया है. अंगुली पकड़कर चलने वाला कब आप के सिर पर सवार हो जाए पता नहीं चलता, आडवाणी-मोदी घटनाक्रम में भी कुछ ऐसा ही हुआ.
एक समय था जब गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र भाजपा की नींव लालकृष्ण आडवाणी को अपना गुरू मानते थे लेकिन अब काहे का गुरू और कौन किसका शिष्य क्योंकि अब तो चमकती हुई मुख्यमंत्री की कुर्सी चीख-चीख कर मोदी को आवाज लगा रही है कि प्रधानमंत्री की कुर्सी दूर नहीं. तेज आवाज जहां सामान्य लोगों के काम बंद कर देती है वहीं ऐसा लगता है कि इस आवाज ने मोदी की आंखें और उनकी विवेकशीलता भी बंद कर दी है तभी तो अब वह स्वार्थ पूर्ति के आगे अपने उस मार्गदर्शक की गरिमा को तार-तार करने से भी पीछे नहीं हट रहे जिन्होंने कभी मोदी को राजनीति का पाठ पढ़ाया था.
खैर, यह तो कलयुग का नियम ही है कि कभी दूसरों की नहीं सिर्फ अपनी परवाह करनी चाहिए और मोदी अगर सबकुछ छोड़कर या कहें भूलकर अपनी परवाह कर रहे हैं तो इसमें गलत क्या है. अरे भई आजकल सभी यही करते हैं तो मोदी कौन सा अपवाद हैं. हां, अगर उन्होंने ऐसा ना किया होता अर्थात आडवाणी की मर्जी या उनके आशीर्वाद के बिना स्वयं को मिलने वाली प्राथमिकताएं और चुनाव प्रचार समिति का अध्यक्ष बनने जैसा पद ना स्वीकार किया होता तो बात कुछ अलग होती.
जब कोई खुद आकर आपको इतनी सारी महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां, जो भविष्य में फायदे का सौदा साबित होने वाली हैं, पकड़ा रहा है तो कोई क्यों अपने पैर पर कुल्हाड़ी मारेगा और अपने गुरू की आज्ञा लेने जैसा रिस्क लेगा. क्या पता अगर आडवाणी ने मना कर दिया होता तो बेचारे मोदी गुजरात के मॉडल को लिए-लिए कहां-कहां फिरते…!! यह सब जानने और समझने के बाद ही नरेंद्र मोदी ने जिम्मेदारियों का पालन करना स्वीकार किया होगा.
भावी प्रधानमंत्री जैसा लॉलीपॉप मोदी के हाथों में थमा कर भाजपा ना जाने उनसे और देश से क्या अपेक्षाएं रखना चाह रही है. पहले आडवाणी को रुसवा किया, सहयोगियों को महत्व देना बंद कर दिया और अब जब मोदी का बहिष्कार करने की बात उठने लगी है तो भाजपा ने मौन व्रत धारण कर लिया है जो लगता है आगामी लोकसभा चुनावों से पहले तो नहीं टूटने वाला.
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