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चलिए कोई बात नहीं पेट भरने को खाना नहीं दिया ना सही, रहने को घर नहीं दिया ना सही, बेरोजगारों को काम नहीं दिया ना सही, भूख से बिलखते परिवारों की नहीं सुनी ना सही लेकिन लैपटॉप देकर कौन सी राजनीति करने लगे अखिलेश बाबू?
शायद उन्हें लगा होगा कि लैपटॉप देकर या लीक से हटकर कुछ करने पर उन्हें भविष्योन्मुखी और युवा दृष्टिकोण वाले नेता का तमगा पहनाया जाएगा. लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनके प्रदेश के बेचारे गरीबी के मारे लोगों को लैपटॉप जैसी महंगी वस्तु की तो कोई कद्र ही नहीं है. उनकी सोच तो अभी भी उसी ढर्रे पर चल रही है जहां उन्हें बस पेट भरने के लिए रोटी और न्यूनतम जरूरतों को पूरा करने के लिए धन की आवश्यकता है.
उल्लेखनीय है कि गत सोमवार को प्रदेश की सरकार द्वारा करीब 10 हजार बच्चों को मुफ्त लैपटॉप बांटे गए लेकिन आधुनिक तकनीक की कीमत को ना समझने वाले वे नासमझ बच्चे लैपटॉप को घर लाने की बजाए उसे सीधा बाजार ले गए और वह भी मात्र कुछ पैसों में बेचने के लिए.
अब आजकल की भाषा में तो उन्हें बेवकूफ ही कहा जाएगा जो लैपटॉप की कीमत नहीं समझ पाएं. अखिलेश सरकार तो उन्हें तकनीक की दौड़ में आगे रखना चाहती थी लेकिन नासमझ बच्चों को समझाए तो समझाए कौन. अरे, लैपटॉप में इंटरनेट लगवाते तो घर बैठे किसी के भी बारे में सूचना प्राप्त कर सकते थे, फेसबुक चला सकते थे, चैटिंग कर सकते थे. क्या मजेदार टाइम पास होता. लेकिन पता नहीं क्यों वह उसे बेचने पर उतारू हो गए और वह भी बस अपने निर्धन परिवार को कुछ पैसे मुहैया करवाने के लिए.
लेकिन उन बच्चों की किस्मत को तो यह भी मंजूर नहीं हुआ और बदकिसमती से किसी भी दुकानदार ने उनके लैपटॉप को खरीदने की हिमाकत नहीं की. अरे कैसे करते! अखिलेश बाबू का गिफ्ट है और गिफ्ट को बेचा थोड़ी जाता है. दो दिनों की कड़ी मशक्कत करने के बाद भी बेचारे बच्चे लैपटॉप बेच नहीं पाए. दुकानदार को बहुत समझाया कि भैया हमें नौकरी तो मिलेगी नहीं, आगे भी खेती ही करनी है तो लैपटॉप रख कर हम क्या करेंगे, प्लीज इसे खरीद लो. लेकिन नहीं. किसी ने भी उसका दर्द नहीं समझा. समझदार सरकार शायद अपने प्रदेश के बच्चों के स्वभाव को समझती थी इसीलिए ही तो उन्होंने पहले ही अपने द्वारा दिए जाने वाले लैपटॉप पर अपना एक ऐसा ‘लोगो’ लगा दिया जिसे देखकर कोई भी दुकानदार उस लैपटॉप को लेने के लिए भी तैयार नहीं हुआ. फिर चाहे वह उस बेशकीमती लैपटॉप को पांच हजार में बेच रहे हों या दस हजार में, कोई भी उस लैपटॉप को अपनाना नहीं चाहता था.
भूख और निर्धनता से लाचार बच्चों की तो सरकार सुनती नहीं है और अब तो मुएं दुकानदार भी उनके दुख को समझने की जहमत नहीं उठा रहे.
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