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बहुत सारे ऐसे प्रश्न इधर-उधर बिखरे पड़े हैं जिनका कोई हल नहीं है या फिर उनका हल है भी तो किसी में इतनी क्षमता अब नहीं रह गई है कि वह उनका जवाब दे. जहां राजनीति के मार से पूरा देश बेहाल है वहां कौन यह हिमाकत करेगा कि आगे आए प्रश्नों को हल करे. सभी इसी में अपनी भलाई समझते हैं कि चुप रहो और अपने काम से काम रखो. अगर सभी यही करते रहेंगे तो आखिर कैसे इस तरह के प्रश्न सुलझ पाएंगे? मुख्य रूप से यह प्रश्न इस बात से जुड़े हैं कि आखिर कितनी आज़ादी है हमें अपने ही देश में हो रहे कुशासन के खिलाफ बोलने का?
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अभिव्यक्ति=जेल: आज के भारत में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता बस नाम मात्र की रह गई है. ना तो आपको बोलने दिया जाता है और ना ही आपकी आवाज को सुनने की कोई जरूरत समझता है. विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र में अगर यही अधिकार छीन लिया जाता है तो उसके पास प्रतिवाद के लिए और क्या बचेगा. चाहे वो कोई भी मुद्दा हो अगर किसी ने आवाज उठाई उसके खिलाफ तो उसका परिणाम जेल या पुलिसिया कार्यवाही ही होता है. तो ऐसे हालात में कोई क्यों ऐसा व्यर्थ का काम करेगा.
राजतंत्र की ओर: भारत कुछ दिनों बाद कहीं लोकतंत्र से राजतंत्र में न बदल जाए यह सबसे बड़ा भय है. एक लोकतंत्र में कोई भी किसी के ऊपर भी टिप्पणी कर सकता है पर अब यह भारत में नहीं देखा जा रहा है. कुछ छोटे-मोटे आवाज उठ कर सामने जरूर आ रहे हैं पर उसको दबाने में सत्ता पक्ष को कोई खास मुश्किल नहीं आ रही है. कोई कार्टून बना कर व्यंग्य कर रहा है तो कोई आज के सबसे बेहतर मीडिया फेसबुक के जरिए अपना विरोध कर रहा है पर इसका कोई खास असर नहीं पड़ रहा है. व्यंग्य कोई खराब विधा नहीं है. अगर इसका प्रयोग सकारात्मक तरीके से किया जाए तो यह एक अच्छा संदेश जनता तक पहुंचा सकती है पर आज के युग में स्वस्थ व्यंग्य भी एक दुर्लभ कृति हो गई है. व्यंग्य के नाम पर आज गाली-गलौज हावी हो गए हैं और गालियां भारत की पहचान नहीं हो सकती हैं. निष्कर्ष के तौर पर यह कहा जा सकता है कि आज के राजनैतिक माहौल में चुप रहने में ही भलाई है.
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