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“पेट-भरुवा” राजनीति

कटाक्ष
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india-money-आज राजनीति करने के कुछ मुख्य आधार हैं जिन पर आप अच्छी तो नहीं पर ‘’पेट-भरुवा’’ राजनीति जरूर कर सकते हैं. आजकल इसी का चलन भी है और अगर आप ऐसे ना हुए तो फिर आपको पुरानी सदी का कोई सामान माना जाएगा. अलगाववाद और जतिवाद पर राजनीति करना इनमें से प्रमुख विषय हैं. इन विषयों के बारे में आज तक कई सारे नमूने सामने आ चुके हैं फिर भी यह रुक नहीं रहा है. नित्य ही इसमें नए-नए प्रयोग किए जा रहे हैं जिससे पूरा देश प्रभावित हो रहा है. इसको रोकने की जितनी कोशिश नहीं की जाती उससे कहीं ज्यादा इस आग को हवा देने में राजनेता अपना योगदान देते हैं.


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कई सारे मुद्दे बिखरे पड़े हैं(Politics In India): इस तरह की राजनीति के कई सारे मामले आंखों के सामने हैं जिसे भूलना तो दूर उसकी याद भी रोंगटे खड़ी कर देती है. क्या अंग्रेजों की बर्बरता हम पर हावी हो गई है जो हम उसको फिर से अपने ही लोगों पर दोहरा रहे हैं. गोधरा से लेकर तेलंगाना तक के सफर को क्या आसानी से भुलाया जा सकता है? क्या इनके भुक्तभोगियों की पीड़ा समय के साथ समाप्त हो चुकी है? वोट के नाम पर मंदिर-मस्जिद विवाद, रथ यात्रा का ढकोसला, किसान के घर जा कर रहना उसकी रोटियों से प्रशंसा पाना ही आज की राजनीति का परम धर्म है.  राजनीति समाज के लिए अस्त्र है पर उसे व्यवहार करने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि इसका प्रयोग सकारात्मक रूप से भी किया जा सकता है. गुटबाजी और सत्ता के लिए लड़ाई करना और विकास के नाम पर केवल यंत्रवत भाषण दे देना ही क्या राजनीति है?


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प्रयोगवाद या नष्टवाद(System Of Politics): प्रयोगवाद के नाम पर योजना आयोग की दिखावटी नीतियां कभी भी इस देश की जरूरतों को पूरा नहीं कर पाएंगी. जिस तरह के रोजगार प्रलोभन के जाल बिछाए जा रहे हैं क्या कभी वो उन अवसादों कि पूर्ति कर पाएंगी जो विगत युग की राजनीति ने फैलाए हैं. क्या सौ दिन की रोजगार योजना ही काफी है रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए. सरकारी काम से लेकर अन्य सारे विभाग तक फैले इस लूट की राजनीति का कहीं अंत होता नहीं दिख रहा है. प्रगति के नाम पर केवल योजना को सूचीबद्ध करना भी एक ऐसा चलन है जो लोकतंत्र तथा उसमें समाए लोगों के लिए एक खतरे की घंटी है और इसको रोकने का भी कोई प्रयत्न नहीं किया जा रहा है. बस सारे लोग ‘’पेट-भरुवा’’ राजनीति की ओर अग्रसर हो रहे हैं.


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