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मुआवजे अपनी गलती को छुपाने का अच्छा अस्त्र हैं. कोई भी दुर्घटना अगर होती है तो उसके जांच से भी पहले मुआवजे की खबर सुनने को मिलती है. क्या यही अंतिम विकल्प है या मामले को ठंडा करने के लिए ऐसे प्रलोभन दिए जाते हैं? छ्ठ के अवसर पर पटना में बने अस्थाई पुल के गिरने और भगदड़ में लोगों के मरने पर सरकार ने मुआवजे की घोषणा कर दी. इससे पहले भी रेल या अन्य दुर्घटनाओं पर मुआवजे घोषित कर दिए गए पर क्या मात्र इस मुआवजे से उनके घर वाले या उससे जुड़े लोगों के क्षति की पूर्ति हो सकती है? राजनीति के इस बेरहम चेहरे को क्या आइने में वो सिसकियां नहीं दिखती हैं? यह प्रश्न कभी भी सुलझ नहीं सकता.
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मुआवजेकी परंपरा (Compantation): रेल दुर्घटना हो या कोई और दो बातें सब में आम होती हैं. पहली तो जांच आयोग का गठन और दूसरी मुआवजे की राशि की घोषणा. जांच आयोग शायद आज तक किसी मामले में अपनी जांच पूरी कर किसी फैसले तक नहीं पहुंचा होगा और पता नहीं आज तक कितनों को मुआवजा प्राप्त हुआ होगा. घटना के समय मौजूदा सरकार पर यह एक बोझ होता है वहीं विपक्ष के लिए एक अच्छा मौका होता है. इस समय जितना ध्यान अपने बचाव पर दिया जाता है उतना ना तो मृतकों के ऊपर और ना ही घटना के कारणों पर दिया जाता है. यह काफी पुरानी परंपरा है जिसका निर्वाह आज तक यहां के राजनेता करते आ रहे हैं.
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राजनीति हर जगह(Failure Of Politics): आज की राजनीति हर जगह की जा सकती है भले ही वो कोई शोक ही क्यों ना हो. मुद्दों पर राजनैतिक रोटियां सेंकना पुरानी कला है जो हर एक राजनेता जानता है और यह भी भली-भांति जानता है कि इसका प्रयोग कैसे और कब करना है. इस नए मामले में भी यह बात तुरंत ही देखने को मिल गई. बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने सत्ता पक्ष की इस मामले में जम कर आलोचना की. सत्ता पक्ष को कठघरे में रखते हुए अपने को चर्चाओं में लाने के सुंदर अवसर का भरपूर लाभ उठाया. इस तरह यह घटना टुकड़ों में बंट गई जिसके कुछ प्रमुख आधार बने जैसे मुआवजा, राजनीति और जांच और इस तरह यह घटना भी पहले की घटनाओं की तरह ही कहीं लुप्त हो जाएगी.
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