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हुकूमत कभी भी उस दर्जे की सोच अख्तियार कर ही नहीं सकती जिस सोच से आम आदमी को रोज़ गुजरना पड़ता है. देश के मौजूदा राजनीतिक समीकरणों को अगर देखा जाये तो एक प्रबल विकासशील देश बनने के क्रम में भारत दिखाई ही नहीं देता है. आज के राजनैतिक माहौल में यथार्थ को सही प्रकार से न तो संज्ञा प्रदान की जा रही है और ना ही इसकी तरफ कोई पहल की जा रही है. किसी भी लोकतांत्रिक देश की हालत को मात्र राजनीति से ही सुधारा जा सकता है पर जहां राजनीति को ही सुधारना पड़े तो फिर देश की हालत को सुधारना स्वप्न के अलावा और कुछ नहीं रह जाता है. और इस स्वप्न को हम ना जानें कितने दशकों से संजोये उस मक़ाम की ओर भाग रहे हैं जहां का अभी तक कोई अक्स ही नहीं दिखा है.
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नयीकहानीकेनएपात्र
गठबंधन पर पूरी तरह आश्रित राजनीति में सभी अपने दांव लगाने और नापाक बचे रहने की फ़िराक में लगे हुए हैं. पर यहां कोई कैसे नापाक रह सकता है जहां इसे छोड़ पाक नाम का कोई विकल्प ही नहीं है. गठबंधन की क्रियाशीलता कुछ ऐसी है जहां विश्वास का कोई प्रयोजन ही नहीं है. उपरी दिखावट और आतंरिक सच्चाई के अंतर को स्पष्ट करना बड़ा ही मुश्किल काम है. मौजूदा राजनैतिक समीकरणों में संक्रमण हो गया है और ये संक्रमण इतना व्यापक है कि इसे अगर बढ़ने से ना रोका जाये तो ये कभी ना कभी पूरे लोकतंत्र को खोखला कर देगा. आज की मांग भी विचित्र हो गयी है. छोटे से छोटे मांग के लिए समर्थन वापस लेना और किसी मांग को मनवाने के लिए विशिष्ट राज्य का दर्ज़ा हासिल करना ही आज की राजनीति है. पूर्ण स्वतंत्र राजनीति के सूत्रधार अपने कर्तव्यों से ज्यादा अपने आप को स्थाई रखने में ध्यान दे रहे हैं.
मानकोंकेनएअर्थ
जिस तरह की विचारधारा के साथ देश ने अपनी नयी शुरुआत की थी आज़ादी के बाद उसकी रूपरेखा बिलकुल धूमिल पड़ गयी है. अपने सत्ताधारी विशिष्टों के लिए सबसे प्रमुख मुद्दा यही है कि किस प्रकार यथार्थ की अवनति में भी अपनी उन्नति के बारे में सोचा जाये और इस प्रकार के नज़रिए को अपनाते हुए उनसे यह उम्मीद रखना व्यर्थ है कि वो सर्वसाधारण के प्रति कर्तव्यनिष्ठ हों. केंद्रीय राजनीति के प्रतिनिधि अपनी हुकूमत की जंग इस शिद्दत से लड़ रहे हैं कि और बाकी सारे नियंत्रणों को ताक पर रख दिया है. नीतियों की जर्जर अवस्था इस बात की ओर इशारा करती है कि केवल ऊपरी दिखावे के अलावा आज कि “राजनीति” में कोई “नीति” नहीं रह गयी है. तत्काल में बेरोजगारी के विरोध में जम्मू-कश्मीर की विधान सभा में काफी हंगामा हुआ. ये एक प्रमुख सवाल है राजनीति पर कि एक विकासशील देश में विकास के नाम पर ऐसे सवाल उभर कर सामने आते हैं तो इस देश को किस प्रकार “विकासशील ” कहा जा सकता है.
येतोआमबातहै
आज की राजनीति जहां तक विचार पर आधारित नहीं है उससे कहीं ज्यादा मानवीय वैचारिकता पर कुठाराघात करती नज़र आती है. देश की रोज़ की सुर्खियों में अगर किसी दिन किसी घोटाले की खबर नहीं आती है तो समझिये कि आज सूरज किसी दूसरी दिशा से उगा है या नए वृहद रूप में किसी षड़यंत्र की तैयारी की जा रही है. 2 जी, 3 जी से ना जाने कितने “विशिष्ट जी” संलग्न है पर किसी की आधिकारिक पुष्टि ना हो पाने की वजह से “जीजा जी” भी अपने पैर फ़ैलाने लगे हैं. देश की अर्थनीति इस कदर टूटती जा रही है कि लोग त्रस्त हो चुके हैं. जिसके बारे में बात करते हुए देश के प्रधानमंत्री कहते हैं कि पैसे पेड़ पर नहीं उगते………सही बात है. पर इसमें बेचारी जनता का क्या कसूर!! अगर पैसे पेड़ पर ही उगते तो देश की जनता प्रधानमंत्री का निर्वाचन ही नहीं करती. पूरे विश्व में इन्फ्लैशन चल रहा है इसलिए हमारा देश भी बाध्य है तरक्की ना कर पाने में. ऐसे में अर्थशास्त्री करें भी तो क्या करें. प्रयत्नशीलता तो भारतीयों के रक्त में व्याप्त है और ये इस गुण का निर्वाह किये बिना नहीं रह सकते हैं और हम मात्र सुधार, विकास, रोजगार, सुशासन के लिए सदैव लालाइत नेत्रों से देखते रहेंगे.
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